छात्र राजनीति से बंगाल के CM तक…राजनीति में कुछ ऐसे बढ़ती गई ‘दीदी’ की ताकत
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के लिए एक बार फिर ममता बनर्जी का ‘जादू’ काम आया और पार्टी ने राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 29 पर जीत हासिल की. मौजूदा लोकसभा चुनाव ममता को अपने बलबूते पश्चिम बंगाल में अपने गढ़ को बचाने के लिए याद किया जाएगा.ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में एकला चलो की नीति अपनाई थी. यानी उन्होंने बंगाल के रण में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया और नतीजों ने साबित कर दिया कि उनकी पार्टी के लिए ये फैसला सही था. कांग्रेस के जिस अधीर रंजन चौधरी के साथ ममता बनर्जी की पूरे चुनाव प्रचार के दौरान ठनी रही. वो भी बहरामपुर की पिच पर टीएमसी के यूसुफ पठान के हाथों बोल्ड हो गए.’दीदी’ ने जीत का श्रेय राज्य की जनता को दिया और चुनावी नतीजों को ‘बंगाल के विरोधियों को जनता का ठेंगा’ करार दिया. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि ममता का राजनीतिक करिश्मा, सड़क पर उतरकर लड़ाई लड़ने वाली जुझारू नेता की उनकी छवि और बीजेपी के प्रति उनका विरोध उनके समर्थकों के विश्वास को बनाए रखने में कहीं अधिक काम आया. इससे उन्हें सत्ता विरोधी लहर के बावजूद पार्टी के 2021 के राज्य विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन को लगभग दोहराने में मदद मिली.1970 मे छात्र राजनीति से की थी सफर की शुरुआत कीराजनीति में ‘दीदी’ के नाम से विख्यात ममता ममता बनर्जी ने 1970 में कांग्रेस की छात्र इकाई से राजनीति की शुरुआत की थी. छात्र राजनीति के दौरान ममता ने जय प्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई के खिलाफ विरोध का बिगुल फूंका और कांग्रेस के संगठन में खुद को साबित किया. ममता बनर्जी ने 1976 से 1989 के बीच महिला आयोग में महासचिव की जिम्मेदारी भी संभाली. इसके बाद ममता मजबूत बनकर उभरीं और 1984 के चुनाव में बंगाल के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को हरा दिया और कांग्रेस में ममता का कद और भी बड़ा हो गया.कांग्रेस का साथ छोड़ा और TMC का किया गठनकांग्रेस से अलग होने के बाद ममता बनर्जी ने 1989 में तृणमूल कांग्रेस (TMC) की स्थापना की और बंगाल में ममता ने कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ हल्ला बोला दिया. 2001 के विधानसभा चुनाव में TMC ने अच्छा प्रदर्शन किया और बंगाल की 60 सीटें पर अपना कब्जा जमाने में सफल रहीं. हालांकि, कांग्रेस विरोधी लहर में ममता 1989 में जादवपुर लोकसभा से चुनाव हार गईं. लेकिन 1991 में फिर ममता दोबारा लोकसभा पहुंची और पीवी नरसिंह राव की कैबिनेट में मंत्री बनीं. नरसिम्हा राव सरकार में ममता बनर्जी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली. बाद में वह खेल मंत्री भी बनाई गईं.जब किसानों के समर्थन में उतरी थीं ममता2005 में जब सिंगूर और नंदीग्राम में किसान जमीन अधिग्रहण का विरोध किया तो ममता ने किसानों का साथ दिया और उनके आंदोलन को आगे लेकर बढ़ीं और यहीं से ममता की लोकप्रियता लोगों के बीच बढ़ी. हालांकि, साल 2006 में चुनाव में ममता को हार का सामना करना पड़ा और 2009 में UPA में शामिल हो गई. साथ ही मनमोहन सिंह की सरकार में रेल मंत्री का जिम्मा संभाला. कम्युनिस्ट को बंगाल की राजनीति से उखाड़ फेंकाहालांकि, ममता हार नहीं मानी और बंगाल की सियासी जमीन पर डटी रही. जिसका असर 2011 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. ममता बनर्जी ने करीब 34 सालों से सत्ता पर काबिज कम्युनिस्ट को बंगाल की राजनीति से उखाड़ फेंका. टीमसी को 184 सीटें पर जीत मिली. इसके बाद फिर 2016 के चुनाव में भी ममता बनर्जी के TMC ने अच्छा प्रदर्शन किया और 211 सीटें पर जीत हासिल की.जमीनी नेता के तौर पर ममता की पहचानसियासत में ममता को एक बाद एक सफलता हासिल करने में कामयाब रहीं. पहले सांसद बनीं, फिर केंद्र में मंत्री रहीं और उनके बाद ममता बंगाल की CM बनीं. लेकिन उनके रहन-सहन में कोई बदलाव नहीं आया. सफेद साड़ी और हवाई चप्पल में वो हमेशा ही दिखीं. ममता बंगाल की पहचान हमेशा एक जमीनी नेता के तौर पर हुई. बंगाल की हर लड़ाई में वो अग्रिम मोर्चा पर खड़ी रहीं.ममता बनर्जी के बारे में…ममता बनर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल में एक बंगाली हिन्दू परिवार में हुआ था. उनके माता-पिता प्रोमिलेश्वर बनर्जी और गायत्री देवी थे. बनर्जी के पिता, प्रोमिलेश्वर (जो एक स्वतंत्रता सेनानी थे. 1970 में ममता ने देशबन्धु शिशुपाल से उच्च माध्यमिक बोर्ड की परीक्षा पूरी की. उन्होंने जोगमाया देवी कॉलेज से इतिहास में स्नातक की डिग्री प्राप्त की. बाद में, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास में अपनी मास्टर डिग्री हासिल की.