स्वतंत्रता दिवस एवं रक्षाबंध के अवसर पर मंत्री केदार कश्यप का शुभकामना संदेश
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स्मृति शेष : आप… दीद के काबिल थे मनमोहन सिंह

स्वतंत्रता दिवस एवं रक्षाबंध के अवसर पर मंत्री केदार कश्यप का शुभकामना संदेश

स्मृति शेष : आप… दीद के काबिल थे मनमोहन सिंहमाना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख…पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) अब हमारे बीच नहीं हैं. देश की संसद में एक चर्चा के दौरान उनके द्वारा पढ़ा गया अल्लामा इक़बाल का यह शेर सोशल मीडिया में तेजी से वायरल हो रहा है. एक बार फिर अखबारों के पन्ने उनकी ड्रिग्रियों के बखान कर रहे हैं. 10 साल बाद ही इतिहास उनके साथ न्याय करने लगे है. भारत की बूढ़ी होती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का श्रेय देते हुए उन्हें लोग याद कर रहे हैं.  कलमकार जब किसी एक तरफ कलम चलाने लगते हैं तो कई बार दूसरा हिस्सा गौण रह जाता है. भारतीय राजनीति में इसके सबसे अधिक शिकार मनमोहन सिंह हुए. मनमोहन सिंह के खिलाफ एकतरफा लेखनी हुई. बाद में अब जब इतिहास न्याय करने की सोच भी रहा तो सिर्फ अर्थव्यवस्था में सुधार का नायक बताकर इतिश्री हो रही है.बतौर वित्त मंत्री 1991 से 1996 में उनके कार्य बेहतरीन थे लेकिन जो उनके कार्य 2004 से 2009 गौण रह गए वो बेमिशाल थे. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में गांधी के सर्वोदय को जमीन पर उतारने की पूरी कोशिश हुई. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में भारतीय नागरिकों को जितने अधिकार मिले उतने कभी नहीं मिले.मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार ,भोजन का अधिकार, काम का अधिकार,  वनाधिकार जैसे कई ऐसे अधिकार आम लोगों को मिले जिसने ग्रामीण भारत की दशा और दिशा बदल दी. नि: संदेह इन तमाम कानून और अधिकारों के क्रियान्वयन उस स्तर पर नहीं हो पायी जितने आदर्श कागजी तौर पर यह कानून दिखते हैं. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते ही इन कानूनों और अधिकारों में सेंध लगने लगे थे. इसे कमजोर करने की शुरुआत भी हो गयी थी.  कुछ कानून तो सही से जमीन पर उतर ही नहीं पाए लेकिन अगर सोच के स्तर पर देखेंगे तो यह कानून बेहतरीन हैं. गांधी के सर्वोदय के रास्ते पर थे मनमोहन सिंहमनमोहन सिंह के शासन ने  सर्वोदय के आदर्शों को स्थापित करने की दिशा में कई महत्वपूर्ण कार्य हुए. गांधीवादी दृष्टिकोण को जमीन पर उतारने वाली नीतियों में अगर सबसे ऊपर किसी को रखा जाएगा तो मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005) एक बहुत बड़ी देन के तौर पर सामने आया. इस योजना ने ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक सशक्तिकरण का एक नया मॉडल पेश किया. यह “अंतिम व्यक्ति” के उत्थान की सर्वोदय की भावना को जीवंत करता है.भारत निर्माण योजना ने ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा, जैसे सड़क, पानी, बिजली, और आवास, के विकास के क्षेत्र में तीव्र विकास के रास्ते तैयार किए. जिसे नरेंद्र मोदी के शासण में और अधिक रफ्तार मिली. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013 भारत जैसे आर्थिक विविधता वाले देश के लिए एक बड़ी कड़ी साबित हुई. कोरोना संकट के दौरान और उसके बाद गरीबों के प्रति सरकार की मजबूत जिम्मेदारी की शुरुआत कहीं न कहीं यहीं से हुई थी. शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE), 2009 एक परिवर्तनकारी महत्वाकांक्षी योजना थी. हालांकि अफसोस यह है कि कांग्रेस शासित राज्यों में भी इसे जमीन पर उतारने में बहुत अधिक दिलचस्पी नहीं दिखायी गयी. नीतिगत स्तर पर यह ऐसी योजना थी जो देश में शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी क्रांति ला सकती थी. कांग्रेस की वैचारिक पहचान को लेकर हमेशा सजग रहे मनमोहन सिंहकांग्रेस पार्टी पर इंदिरा गांधी के दौर से ही यह आरोप लगते रहे हैं कि वो गांधी के मूल विचारों से इतर कभी वामपंथी खेमे के दवाब में रहती है तो कभी राष्ट्रवादियों के. मनमोहन सिंह ने कांग्रेस पार्टी को इन दोनों ही प्रेशर से मुक्त रखने का प्रयास किया. हालांकि वो इस मामले में अपनी सरकार के फैसलों में तो बहुत हद तक सफल रहे लेकिन कांग्रेस पार्टी के अंदर बहुत परिवर्तन नहीं ला पाए. कांग्रेस पार्टी के संगठन पर मनमोहन सिंह की कभी भी पकड़ नहीं रही.एक तरफ मनरेगा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, वन कानून जैसे मुद्दों के साथ मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल में समाजवादी जनवादी राजनीति के करीब दिखते हैं. वहीं दूसरी तरफ भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौता (2008) के दौरान वामपंथियों के सामने उनका न झुकना उनकी राजनीतिक परिपक्वता को दिखाता है. मनमोहन सिंह ने इस करार के लिए अपनी सरकार तक दांव लगा दिया था. संसद में वोट फॉर नोट के मामले के बाद उनकी सरकार बची थी. मनमोहन सिंह ने अपने फैसलों में उस बॉर्डर का हमेशा ध्यान रखा जो गांधी और नेहरू के दौर में कांग्रेस रखा करती थी. मनमोहन सिंह के कार्यों का ही असर था कि एक दौर में युवाओं के बीच कांग्रेस की अच्छी पकड़ हो गयी थी जो अन्ना आंदोलन के बाद उससे छिटक गयी. अंडर रेटेड राजनीतिज्ञ थे मनमोहन सिंह10 साल प्रधानमंत्री और 5 साल वित्तमंत्री रहने के बाद भी मनमोहन सिंह की पहचान एक अर्थशास्त्री के तौर पर ही अधिक रही.  लेकिन उनकी राजनीति को करीब से जानने वाले जानते हैं कि वो अंडर रेटेड राजनीतिज्ञ थे. किसी भी आर्थिक मॉडल के इंप्लिमेंट के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और समझ बेहद जरूरी है. स्वयं प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने वित्त विभाग को नहीं संभाला. यह उनकी राजनीतक सूझबूझ थी. बतौर वित्त मंत्री उन्होंने जो साख कमाया था उसे वो किसी भी कीमत पर गवाना नहीं चाहते थे. 10 साल पीएम पद पर रहने के बाद बाद भी उनके विरोधी भी उन्हें ईमानदार इंसान के तौर पर ही याद करते हैं. वो भी उस दौर में हजारों करोड़ रुपये के घोटालों के आरोप लगे.  यह उनकी राजनीतिक सूछबूझ थी जिसने उन्हें सत्ता के केंद्र में रहते हुए भी उसके कालिख से बचाया. दुनिया भर में भारती की विकासवादी छवि बनाने की उन्होंने पूरजोर कोशिश की. कई मुद्दों पर अत्यधिक चुप्पी उनके आलचोना का कारण भी बना लेकिन मनमोहन सिंह ने हमेशा अपने लाइन ऑफ कंट्रोल का ध्यान रखा. अपने विचारों का ध्यान रखा. यह कार्य कोई सधा हुआ राजनेता ही कर सकता है.मनमोहन सिंह एक ऐसे राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने उस दौर में कांग्रेस की सरकार की कमान संभाली जब उसके ऊपर सबसे अधिक कालिख लगे लेकिन उन्हें याद करते हुए कबीर याद आते हैं…ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया! सचिन झा शेखर NDTV में कार्यरत हैं. राजनीति और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर लिखते रहे हैं.डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं

बतौर वित्त मंत्री 1991 से 1996 में उनके कार्य बेहतरीन थे लेकिन जो उनके कार्य 2004 से 2009 गौण रह गए वो बेमिशाल थे.
Bol CG Desk

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