स्वतंत्रता दिवस एवं रक्षाबंध के अवसर पर मंत्री केदार कश्यप का शुभकामना संदेश
छत्तीसगढ़भारतमध्यप्रदेशरायपुर संभाग

राम व रामचरित मानस को लेकर वामपंथी और राष्ट्रवादी आमने-सामने

राम और रामचरित मानस को लेकर देश में बहस छिड़ी हुई है। बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर के बयान के बाद तमाम प्रज्ञात्मक बुद्धि वाले लोग अपनी राय और तर्क दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ राष्ट्रवादी संघ के प्रदेश संयोजक वीरेंद्र दुबे कहते हैं हमारे धर्मग्रंथ और इतिहास के साथ छेड़छाड़ हुआ है तो वामपंथी भी अपना तर्क दे रहे हैं।

स्वतंत्रता दिवस एवं रक्षाबंध के अवसर पर मंत्री केदार कश्यप का शुभकामना संदेश

क्या रामचरितमानस में वाक़ई दलितों और औरतों का अपमान है? या कोई साजिश है।

जन्म में राम, मरण में राम। वाह में राम, आह में राम। उत्साह में राम, स्याह में राम।

राम को पंडों की परिधि से जन-जन की ज़ुबान पर पहुँचाने के लिए गोस्वामी तुलसीदास को बहुत कुछ सहना पड़ा था।

वाल्मीकि ने रामायण संस्कृत में लिखी थी। ऐसा माना जाता है कि रामायण पाँचवीं सदी ईसा पूर्व से पहली सदी ईसा पूर्व के बीच लिखी गई थी।

तुलसीदास ने रामायण के आधार पर ही अवधी भाषा में रामचरितमानस लिखी।

साहित्य के इतिहासकारों के अनुसार, तुलसीदास ने अयोध्या में रामनवमी के दिन साल 1574 से रामचरितमानस लिखने की शुरुआत की थी।

तुलसी की रामचरितमानस की पांडुलिपि नष्ट करने की भी कोशिश की गई थी।

भारत के पूर्व राजनयिक और भारतीय समाज के साथ संस्कृति पर गहरी नज़र रखने वाले पवन कुमार वर्मा ने अपनी किताब ‘द ग्रेटेस्ट ओड टु लॉर्ड राम: तुलसीदास रामचरित मानस’ में लिखा है कि तुलसीदास ने रामचरितमानस की पांडुलिपि की एक कॉपी अकबर के दरबार में नौरत्नों में से एक और वित्त मंत्री टोडरमल को दे दी थी ताकि सुरक्षित रहे।

काशी के पंडे इस बात से नाराज़ थे कि तुलसीदास राम को देवभाषा संस्कृत से अलग क्यों कर रहे हैं। तुलसीदास का जीवन सफ़र एक अनाथ और आम रामबोला से गोस्वामी तुलसीदास बनने का है।

तुलसीदास की जीवनी पर ‘मानस का हंस’ उपन्यास लिखने वाले अमृतलाल नागर ने लिखा है, ”जनश्रुतियों के अनुसार, तुलसीदास अपनी बीवी से ऐसे चिपके हुए थे कि उन्हें मैके तक नहीं जाने देते थे। ‘तन तरफत तुव मिलन बिन’ दोहे के बारे में कहा जाता है कि तुलसी ने अपनी पत्नी के लिए लिखा था। मुझे लगता है कि तुलसी ने काम ही से जूझ-जूझ कर राम बनाया है। ‘मृगनयनि के नयन सर को अस लागि न जाहि’ उक्ति भी गवाही देती है कि नौजवानी में वह किसी तीरे-नीमकश से बिंधे होंगे। नासमझ जवानी में काशी निवासी विद्यार्थी तुलसी का किसी ऐसे दौर से गुज़रना अनहोनी बात भी नहीं है।”

महाकाव्य रामचरितमानस

रामचरितमानस रामायण का छोटा संस्करण है, लेकिन गोस्वामी तुलसीदास ने जिस शैली में लिखी थी, वह लोकप्रियता में मूल रामायण पर भारी पड़ गई।

रामचरितमानस को आकार में छोटा होने के बावजूद महाकाव्य का दर्जा हासिल है।

रामचरितमानस में 12,800 पंक्तियाँ हैं, जो 1,073 दोहों और सात कांड में विभाजित हैं।

गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस गेय शैली में है। रामचरितमानस की चौपाइयों में हिन्दू धर्म दर्शन की गूढ़ता है, सगुण और निर्गुण भक्ति के बीच का विभाजन है और राम के प्रति भक्ति में समर्पण है।

रामचरितमानस को एक महान साहित्यिक रचना का दर्जा हासिल है, लेकिन उत्तर भारत में हिन्दुओं के बीच धर्म ग्रंथ की भी प्रतिष्ठा हासिल है।

पवन वर्मा ने लिखा है कि रामचरितमानस उत्तर भारत के हिन्दुओं के लिए बाइबिल की तरह है।

पवन वर्मा इसके साथ यह भी कहते हैं कि रामचरितमानस दुनिया की महान साहित्यिक रचानाओं में से एक है।
वर्मा ने अपनी किताब में लिखा है, ”रामचरितमानस में न केवल तुलसीदास की शानदार कविताई है, बल्कि गहरे दर्शन, सहज ज्ञान और इन सबके ऊपर महान भक्ति भाव है।”

रामचरितमानस भक्ति आंदोलन की उपज है. हिन्दी साहित्य के जाने-माने इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल सन् 1318 से 1643 तक भक्तिकाल मानते हैं.

यानी भारतीय इतिहास का यह मध्यकाल था. भक्तिकाल में मुग़ल काल का भी आधा से ज़्यादा समय शामिल है।

तुलसीदास अकबर के ज़माने में थे। कहा जाता है कि अकबर ने तुलसीदास को भी नौरत्नों में शामिल होने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।

भक्तिकाल और तुलसीदास को लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी किताब गोस्वामी तुलसीदास में लिखा है, ”मुसलमान साम्राज्य के पूरी तरह से स्थापित हो जाने पर वीरता के संचार लिए स्वतंत्र क्षेत्र नहीं रह गया था. देश का ध्यान पुरुषार्थ और बल-पराक्रम की ओर से हटकर भगवान की शक्ति और दया की ओर गया। देश का वह निराशा काल था, जिसमें भगवान के सिवा कोई दूसरा सहारा नहीं दिखाई देता था। सूर और तुलसी ने इसी भक्ति के सुधारस से सींचकर मुरझाते हुए हिन्दू जीवन को फिर से हरा किया।”

आचार्य शुक्ल ने लिखा है, ”पहले भगवान का हँसता-खेलता रूप दिखाकर सूरदास ने हिन्दुओं की निराशा जनित खिन्नता हटाई, जिससे जीवन में प्रफुल्लता आ गई। पीछे तुलसीदास जी ने लोक मंगलमय रूप दिखाकर आशा और शक्ति का अपूर्व संचार किया। अब हिन्दू जाति निराश नहीं है।”

तुलसी और सूरदास के कारण तब हिन्दुओं की निराशा कितनी ख़त्म हुई, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन आधुनिक भारत में एक तबके को यह भी लगता है कि रामचरितमानस में तुलसीदास ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्थापित की है और दलितों को नीचा दिखाया है।

क्या रामचरितमानस क्या स्त्री और दलित विरोधी है?
बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने हाल ही में रामचरित मानस को लेकर कहा था कि इससे समाज में नफ़रत फैल रही है।

चंद्रशेखर ने कहा था, ”मनुस्मृति को जलाने का काम क्यों किया गया? मनुस्मृति में एक बड़े तबके के ख़िलाफ़ यानी 85 प्रतिशत लोगों के ख़िलाफ़ गालियां दी गई हैं। रामचरितमानस का क्यों प्रतिरोध हुआ? किस अंश का प्रतिरोध हुआ? अधम जाति मैं बिद्या पाए, भयउँ जथा अहि दूध पिआए। यानी नीच जाति के लोगों को शिक्षा हासिल करने का अधिकार नहीं था।”

चंद्रशेखर ने कहा था, ”इसमें कहा गया है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करके ज़हरीले हो जाते हैं, जैसे कि साँप दूध पीने के बाद होता है। इसी को कोट करके बाबा साहेब आंबेडकर ने बताया था कि ये ग्रंथ नफ़रत को बोने वाले हैं। एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस और तीसरे युग में गुरु गोलवलर की बंच ऑफ थॉट। ये हमारे देश और समाज को नफ़रत में बाँटती हैं।”

तुलसीदास की कुछ चौपाइयों का हवाला देकर उन्हें और रामचरितमानस को दलित और स्त्री विरोधी बताया जाता है। तुलसीदास को दलित और स्त्री विरोधी बताने के लिए आए दिन इस चौपाई का उल्लेख किया जाता है-

प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही

मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।

ढोल, गंवार शूद्र, पशु, नारी

सकल ताड़ना के अधिकारी।।

दूसरे दोहे का उल्लेख बिहार के शिक्षा मंत्री ने किया है- अधम जाति मैं बिद्या पाए, भयउँ जथा अहि दूध पिआए.
रामकथा वाचक अखिलेश शांडिल्य से मैंने पूछा कि तुलसीदास के इन दोहों को दलित और स्त्री विरोधी क्यों नहीं कहा जाना चाहिए?

अखिलेश शांडिल्य कहते हैं, ”इन दोहों के संदर्भ और प्रसंग से हटाकर स्वतंत्र रूप में देखेंगे तो बिल्कुल यही लगेगा कि स्त्री और दलित विरोधी हैं। जो इन दोहों का इस्तेमाल तुलसीदास को घेरने के लिए करते हैं, वे पूरा संदर्भ उड़ा देते हैं।”

शांडिल्य कहते हैं, ”बिहार के शिक्षा मंत्री ने जिस दोहे का उल्लेख किया है, पहले उसकी बात करते हैं। यह दोहा है- ‘अधम जाति मैं बिद्या पाए, भयउँ जथा अहि दूध पिआए’। इस दोहे का प्रसंग यह है कि रामचरितमानस के उत्तर कांड में गरुड़ और काकभुशुण्डि के बीच संवाद हो रहा है। काकभुशुण्डि मतलब कौवे से है।”

”काकभुशुण्डि ख़ुद स्वीकार करते हुए कहते हैं कि उन्होंने थोड़ी विद्या क्या हासिल कर ली कि अपने गुरु की अवज्ञा कर बैठे। दरअसल, वह विनम्रता से अपने घमंड को स्वीकार करने के लिए ख़ुद को अधम यानी नीच बता रहे हैं। कौवे की प्रतिष्ठा गरुड़ के सामने तो कुछ भी नहीं है। काकभुशुण्डि अपने भटकाव को स्वीकार रहे हैं और इसी क्रम में ख़ुद को अधम बताते हैं”

अखिलेश शांडिल्य कहते हैं, ”प्रसंग से काटकर इस दोहे को दलित और स्त्री विरोधी बताने के लिए इस रूप में पेश किया जाता है मानो तुलसीदास ने दलितों के बारे में ख़ुद ही कहा है। यह वैसा ही है कि मैं अपने गुरु को कहूँ कि आपके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ और मेरी जाति देख गुरु पर तोहमत लगाना शुरू कर दिया जाए कि वह दलितों को पैरों की धूल के बराबर भी नहीं समझते हैं।”

हिन्दी साहित्य के जाने-माने आलोचक दिवंगत प्रोफ़ेसर नामवर सिंह ने भी अपने एक व्याख्यान में गरुड़ और काकभुशुण्डि संवाद का ज़िक्र किया था।

नामवर सिंह ने कहा था, ”गरुड़ और काकभुशुण्डि संवाद के रूप में तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति में क्या महत्वपूर्ण है और दोनों में क्या संबंध है, उसे बताया है। भक्ति क्यों ज्ञान से श्रेष्ठ है, ये दिखाने के लिए गरुड़ और काकभुशुण्डि को चुना और दोनों को अंत में जो दिखाते हैं, वह अहम है। आजकल लोग दलित की बात बहुत करते हैं, उन्हें बता रहा हूँ”

”गरुड़ देवताओं के वाहन थे. देवतुल्य थे। काकभुशुण्डि कौवा हैं। कहाँ कौवा और कहाँ गरुड़। लेकिन तुलसीदास ने काकभुशुण्डि को श्रेष्ठ दिखाया क्योंकि वो भक्त थे। भले काकभुशुण्डि पक्षियों में क्षुद्र थे। काकभुशुण्डि जीतते हैं और गरुड़ हारते हैं। ज्ञान बनाम भक्ति का तर्क देखना है तो काकभुशुण्डि और गरुड़ संवाद से बेहतर कुछ नहीं हो सकता।”

तुलसीदास और रामचरितमानस को घेरने के लिए सबसे ज़्यादा, ढोल, ‘गंवार शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ पंक्ति का हवाला दिया जाता है।

इसका इस्तेमाल तो लोग गाँवों में स्त्रियों और दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए भी करते हैं। इस पंक्ति का लोग अपने-अपने हिसाब से स्वतंत्र रूप में इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कोई भी संदर्भ नहीं बताता है।

रामचरितमानस में इस दोहे का संदर्भ बताते हुए अखिलेश शांडिल्य कहते हैं, ”राम लंका के रास्ते में हैं। बीच में समंदर पड़ता है। तीन दिनों से समंदर से रास्ता मांगते हैं, लेकिन समंदर सुनता नहीं है। राम नाराज़ हो जाते हैं और लक्ष्मण से अग्निबाण निकालने का आदेश देते हैं। राम समंदर को सुखाने की हद तक नाराज़ हो जाते हैं। राम इसी ग़ुस्से में कहते हैं-

विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति

बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।

अग्निबाण छूटने से पहले ही समंदर राम के सामने प्रकट होता है और कहता है, ‘प्रभु हम तो जड़ हैं. प्रार्थना समझ में नहीं आती है।’ समंदर इसी प्रसंग में राम से कहता है- ‘ढोल, गंवार शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।’

शांडिल्य कहते हैं, ”यहाँ समंदर अपनी कंडिशनिंग बता रहा है। न तो तुलसीदास कह रहे हैं और न ही राम। किसी साहित्यिक रचना का हर पात्र विवेकशील बात करे यह ज़रूरी नहीं। कोई भी साहित्य अपने समय और समाज के बीच ही पनपता है और उसकी झलक रचना में साफ़ दिखती है। प्रेमचंद का कोई पात्र सामंती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि प्रेमचंद ख़ुद सामंती सोच के हैं

कबीर पर सवाल क्यों नहीं?

भक्तिकाल की समझ रखने वाले विशेषज्ञ इस बात को मानते हैं कि जिस आधार पर तुलसीदास को स्त्री विरोधी बताया जा है, उस कसौटी पर कबीर भी घेरे में आ जाएँगे। कबीर के इस दोहे को देखिए-

नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग।

कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥

कबीर कह रहे हैं कि औरत नर्क के कुंड समान है और इससे शायद ही कोई बच सकता है। कोई संत ही इससे उबर सकता है। बाक़ी संबंध जोड़कर मरते हैं।

कबीर के ऐसे कई दोहे हैं, जिनमें महिलाओं को बुराई की तरह पेश किया गया है। मिसाल के तौर पर एक और दोहे को देखिए-

नारि नसावै तीनि सुख, जा नर पासैं होइ।

भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकई कोइ॥

इस दोहे में कहा गया है कि नारी के प्रति आसक्ति तीन सुखों से वंचित कर देती है। जो भी पुरुष नारी से आसक्ति रखता है, वह भक्ति, मुक्ति और ज्ञान से दूर हो जाता है।

कबीर के एक और दोहे को देखिए. इसमें भी नारी का चित्रण बुराई की तरह किया गया है।

कामणि काली नागणीं, तीन्यूँ लोक मँझारि।

राग सनेही ऊबरे, बिषई खाये झारि॥

कबीर इस दोहे में कह रहे हैं कि नारी काली नागिन के समान है जो तीनों लोकों में मौजूद है. राम से स्नेह करने वालों को तो मुक्ति मिल जाती है, लेकिन विषय विकार में लिप्त लोग नष्ट हो जाते हैं।

कबीर के ऐसे बीसियों दोहे हैं जिनमें पितृसत्ता की वकालत है और औरतों का चित्रण बुराई के रूप में किया गया है।

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”औरतों के मामले में कबीर, तुलसी और जायसी तीनों एक तरह हैं। लेकिन हम उन्हें आज के संघर्षों में नहीं देख सकते हैं। स्त्री के मामले में कबीर, जायसी और तुलसी से सूरदास आगे दिखते हैं। सूरदास के यहाँ महिलाएँ अपने-अपने पतियों को छोड़ देती हैं और स्वतंत्र होकर प्रेम करती हैं। लेकिन सूरदास ने अपने ज़माने की राज्यसत्ता और धर्मसत्ता का विरोध नहीं किया। वहीं तुलसीदास ने राज्यसत्ता और धर्म सत्ता का विरोध किया है।”

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हिन्दी साहित्य के प्रोफ़ेसर रहे और कबीर पर चर्चित किताब अकथ कहानी प्रेम की लिख चुके पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ”कबीर के यहाँ पचासों बातें स्त्री विरोधी हैं। जब आप यह भूलकर पढ़ते हैं कि वह किस समय के थे तब आप किसी को भी टारगेट कर सकते हैं। तुलसीदास इसलिए टारगेट किए जाते हैं कि रामचरितमानस को धार्मिक ग्रंथ के रूप में लिया जाता है। छात्र भी रामचरितमानस को कविता के रूप में नहीं पढ़ते नहीं हैं। रामचरितमानस बहुत ऊंचे दर्जे की साहित्यिक कृति है। हमें जो बातें आज आपत्तिजनक लगती हैं, वो हर धर्म में हैं। चाहे बाइबिल उठा लीजिए या क़ुरान सब में आज की दृष्टि से आपत्तिजनक चीज़ें हैं।”

प्रोफ़ेसर हेमलता कहती हैं, ”कबीर के दोहों में स्त्री विरोधी बातें हैं लेकिन उन्होंने दलितों नीचा नहीं दिखाया है और ब्राह्मणों के पाखंड की खुलकर पोल खोली है. कबीर ने वर्णाश्रम व्यवस्था की भी कलई खोलकर रख दी है।”
प्रोफ़ेसर अग्रवाल कहते हैं, ”जब रामचरितमानस को घेरेंगे, तो लोग पूछेंगे कि कु़रान के बारे में क्यों चुप हैं? रामचरितमानस को साहित्यिक कृति के रूप में पढ़ा जाए तब अच्छा रहेगा। साहित्य में हम कुछ को मानेंगे कुछ को नहीं मानेंगे। कबीर दास के यहाँ जाति व्यवस्था और ऊँच-नीच की आलोचना है जबकि वह नारी के नारी होने की निंदा करते हैं। मैं कबीर के इस पक्ष को नहीं मानता। तुलसीदास प्रतिक्रियावादी कवि थे, लेकिन वह बहुत बड़े कवि हैं। प्रतिक्रियावाद के साथ उनमें मानवीयता भी है। नारी की पराधीनता को लेकर भी वह संवेदनशील रहते हैं। हर धार्मिक ग्रंथ में लोकतांत्रिक मूल्यों का विरोध है। दरअसल, रामचरितमानस की ताक़त समूचे उत्तर भारत में धर्मग्रंथ के रूप में है। इसलिए समस्या होती है।”

प्रोफ़ेसर हेमलता कहती हैं, ”हम किसी भी धर्मग्रंथ से डरते नहीं हैं। हम क़ुरान से पीड़ित नहीं हैं। हम वर्णाश्रम व्यवस्था से पीड़ित हैं और रामचरितमानस इस व्यवस्था का महिमामंडन करती है।”

कबीर की रचना में औरतें

पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं अगर आप तुलसीदास को कुछ दोहों के आधार पर नारी विरोधी कहते हैं तो नारी के समर्थन वाली चौपाइयों को भी नहीं भूलना चाहिए। तुलसीदास यह भी कहते हैं-

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥

यानी तुलसीदास कह रहे हैं कि विधाता ने संसार में स्त्री को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। तुलसीदास को उनकी कुछ चौपाइयों को लेकर दलित विरोधी कह सकते हैं, लेकिन उन्होंने यह भी कहा है-

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।

काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगाड़ न सोऊ।

तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।

माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥

कवितावली की इस चौपाई में तुलसीदास कहते हैं- चाहे कोई मुझे धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो श्रीराम का ग़ुलाम है, जिसको जो लगे सो कहे. मैं तो माँग के खा लूंगा और मस्जिद (देवालय) में सो लूंगा, न किसी से एक लेना है, न दो देना है।

नामवर सिंह ने अपने एक व्याख्यान में तुलसीदास की इस चौपाई के बारे में कहा था कि इस तरह की बात कबीर दास भी नहीं कह पाए कि मस्जिद में सो लेंगे।

नामवर सिंह कहते हैं कि तुलसीदास का जीवन कबीर से ज़्यादा संघर्षपूर्ण रहा और उन्हें बनारस के पंडों ने जमकर निशाना बनाया। तुलसीदास इस दोहे में जो कुछ भी कह रहे हैं, यह उनका भोगा हुआ यथार्थ है।

नामवर सिंह ने कहा था, ”तुलसी ने जिस तरह से छंदों का इस्तेमाल किया है वह अद्भुत है। एक शेक्सपियर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में अंग्रेज़ी के अधिकतम शब्दों का इस्तमाल किया है। उसी तरह तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में अवधी, ब्रज, संस्कृति, फ़ारसी, अरबी और तुर्की के शब्दों का इस्तेमाल किया। तुलसीदास ने क़रीब 22 हज़ार शब्दों का इस्तेमाल किया है।”

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”तुलसीदास ने रामचरितमानस युवावस्था में लिखी थी। विनय पत्रिका और कवितावली में उनका फ़ोकस बिल्कुल बदल जाता है। तुलसीदास की विचारधारा बाद की रचनाओं में देखनी चाहिए। तुलसी अपने ज़माने के इकलौते लेखक हैं जो यथार्थ बताते हैं। कृषि के बारे में बताते हैं। कबीर ऐसा नहीं बताते हैं। हम मध्यकाल को 21वीं सदी या 22वीं सदी की कसौटी पर कसना चाहते हैं। हमें चीज़ों को पूर्णता में देखना चाहिए। हम 20 हज़ार पंक्तियों को छोड़ एक पंक्ति ले लेते हैं।”

प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं, ”साहित्यिक विवाद और राजनीतिक विवाद में एक फ़र्क़ है। साहित्य में विवाद बेहतरी के लिए होता है। आज राजनीतिक विरोध समाज को प्रगतिशील बनाने के लिए नहीं है। आज के समाज में तुलसीदास की रामचरितमानस से हज़ार गुना ज़्यादा स्त्री और दलित विरोधी सोच है। हमारे राजनेताओं को चाहिए कि वे रामचरितमानस को संपादित करने के बजाय समाज से इन बुराइयों को ख़त्म करें। क्या आप ये मानते हैं कि कोई कविता समाज बदल सकती है? वर्णव्यवस्था तुलसीदास ने नहीं बनाई थी। औरतें घर में रहेंगी ये तुलसीदास ने नहीं बनाया था। तुलसीदास ने विद्वेष फैलाया ये ग़लत बात है। हो सकता है कि उनकी कुछ पंक्तियाँ स्त्री विरोधी हों।”

भक्तिकाल में जितनी रचनाएँ हुईं, वे साहित्यिक कृति के रूप में देखी जाती हैं। अपवाद स्वरूप गुरु ग्रंथ साहिब भक्तिकाल से ही निकला और यह धर्मग्रंथ बना।

तुलसी के राम

जिस तरह से तुलसीदास को उनकी चौपाइयों को स्त्री विरोधी कहकर निशाना बनाया जाता है, उसी तरह कबीर को उनके दोहों को लेकर निशाने पर क्यों नहीं लिया जाता है?

पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ”रामचरितमानस की महिमा साहित्य से आगे की है। हम भले इसे साहित्य कहते रहें, लेकिन जनमानस में यह धार्मिक ग्रंथ का रूप ले चुका है। राम किसी नायक की तरह पूरे जनमानस में हैं। ऐसे में तुलसी और रामचरितमानस की चर्चा ज़्यादा लाज़िमी है।”

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”तुलसीदास के राम हाड़-मांस के बने हैं। वह बहुत ही सौम्य हैं। सीता की खोज में वह पशु-पक्षियों के सामने रोते हैं। सीता के बारे में पूछते हैं। लेकिन चुनावी राजनीति में राम को एक विचारधारा ने अपनी तरह से पेश किया। तुलसीदास इसलिए आसान टारगेट हैं क्योंकि उनके ईष्ट राम के नाम पर समाज को बाँटा गया है. तुलसीदास के अनुयायियों ने ही तुलसीदास को निशाने पर आने दिया। रामचरितमानस धर्म ग्रंथ नहीं है। जो ऐसा कहते हैं उन्हें भारतीय परंपरा और समाज की समझ नहीं है।”

प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं कि तुलसी के राम केवल सौम्य नहीं हैं बल्कि योद्धा भी हैं और आरएसएस वालों ने राम के योद्धा वाले स्वरूप का ही दुरुपयोग किया।

अखिलेश शांडिल्य कहते हैं, ”विमर्श संस्कृति का हिस्सा है, लेकिन ढेला (पत्थर) फेंक कर भागना विमर्श नहीं है। कोई भी रचना आलोचना से परे नहीं है। जब आप पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर कुछ करेंगे तो न्यायोचित नहीं होगा। आलोचना के औजार अच्छे होने चाहिए। इस पर निर्भर करता है कि तुलसी में से आप क्या निकालते हैं। गोमुख से गंगा निकली है। आपने बनारस में पानी निकाला और गंगा को कोसना शुरू कर दिया लेकिन गंगा को गोमुख में भी देखना चाहिए।”

तुलसीदास का राज दरबारी बनने से इनकार

अमृतलाल नागर ने ‘मानस के हंस’ में अकबर के नौरत्नों में से एक अब्दुर्रहीम ख़ानाख़ाना से तुलसीदास की मुलाक़ात के एक प्रसंग का ज़िक्र किया है

तुलसीदास जीवन के आख़िरी वक़्त में बिस्तर पर हैं।

अब्दुर्रहीम ख़ानाख़ान ने तुलसीदास का हालचाल लेने के लिए हाकिम को भेजा है।

हाकिम ने तुलसीदास को झुककर सलाम किया और कहा, ”हुजूरेआली ख़ानाख़ान साहब ने मुझे आपकी मिज़ाजपुर्सी के लिए भेजा है।”

जवाब में तुलसीदास कहते हैं- उनसे हमारा सलाम कहिएगा। उनके कुछ दोहे हमने सुने हैं। उन्हें हमारी सराहना की सूचना दीजिएगा और इस कृपा के लिए मेरा आभार भी प्रकट कीजिएगा।

दूसरे दिन ही घुड़सवारो की सेना के साथ हाथी पर सूबेदार अब्दुर्रहीम ख़ानाख़ान गोस्वामी जी के दर्शनार्थ पधारे। उनके आने की सूचना पहले ही भेज दी गई थी।

बड़ा सरकारी प्रबंध हुआ था। सूबेदार को देखने के लिए बाबा के निवास स्थान के आसपास बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी।

तुलसी और रहीम बड़े प्रेम से मिले। ख़ानाख़ान बड़े साधारण आसन पर बैठकर एक-दूसरे से बातें करने लगे। उनके बंदी बनाए जाने के कारण रहीम ने माफ़ी मांगी। उनके उपचार के लिए अपने ख़ास हकीम को भिजवाने की बात भी कही।

रहीम ने अकबर बादशाह के संबंध में कहा, ”महाबली सब प्रकार के अन्यायियों को कुचल रहे हैं। वे ऐसे धर्म का प्रतिपादन करते हैं जो मानवमात्र को एक कर सके।”

इसके जवाब में तुलसी बोले, ”इसमें कोई संदेह नहीं कि अकबर शाह के काल में बड़ी व्यवस्था आई है। फिर भी समाज और शासन को और अधिक संगठित और न्यायशील होना चाहिए।”

जवाब में अब्दुर्रहीम ख़ानाख़ान ने कहा, ”आपका कहना यथार्थ है गोस्वामी जी। अच्छा तो अब आज्ञा लूँगा। स्वस्थ हो जाएँ तो एक दिन मुझे दर्शन देने की कृपा ज़रूर करें। एक और निवेदन करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि आप ऐसे महात्मा महाकवि को राज्य संरक्षण मिलना चाहिए। मैं यदि शहंशाह को आपको कोई जागीर प्रदान करने के लिए लिखूँ तो क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?”

तुलसी हँसे और बोले- ”आपकी बड़ी कृपा है ख़ानाख़ान साहब, परन्तु..

हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखो दरबार।

तुलसी अब का होहिंगे, नर के मनसबदार।।

यानी तुलसीदास कहते हैं- राम के दरबार में मेरी चाकरी का पट्टा लिखा चुका है। तो अब भला किसी मनुष्य की मनसबदारी क्या करूँगा।

उनकी रचना इस सोच को खाद-पानी दे रही है।”

जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में हेमलता महेश्वर हिन्दी साहित्य की प्रोफ़ेसर हैं। वह अपनी दलित पहचान को लेकर काफ़ी मुखर रहती हैं।

प्रोफ़ेसर हेमलता महेश्वर से मैंने पूछा कि क्या वह बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर की इस बात से सहमत हैं कि रामचरितमानस नफ़रत फैलाने वाली रचना है?

प्रोफ़ेसर हेमलता महेश्वर कहती हैं, ”हम आंबेडकरवादी हैं और अस्मिता की राजनीति के पैरोकार हैं। हम आंबेडकर के 22 संकल्पों को मानते हैं। इन संकल्पों को आंबेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़ते हुए और बौद्ध धर्म अपनाते हुए दोहराया था. इन 17 संकल्पों में दूसरा ही संकल्प है- राम और कृष्ण में कोई आस्था नहीं होगी और न ही इनकी पूजा करेंगे। रामचरितमानस तो राम की महिमा को फैलाती है.ल। हम उसे कैसे मान सकते हैं।”

प्रोफ़ेसर हेमलता कहती हैं, ”अगर रामचरितमानस को धर्म ग्रंथ के रूप में देखते हैं तो मैं इसे ऐसे देखती हूँ. अगर रामचरितमानस को साहित्यिक रचना के रूप में देखते हैं तो साहित्य की आलोचना स्वाभाविक है। साहित्य के रूप में रामचरितमानस की मैं आलोचना इस बात के लिए करती हूँ कि यह ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्थापित करती है. स्त्रियों और दलितों को नीचा दिखाती है”

प्रोफ़ेसर हेमलता कहती हैं, ”बात केवल तुलसी की एक-दो चौपाइयों की नहीं है। ऐसी कई चीज़ें हैं, जो दलितों और स्त्रियों की प्रतिष्ठा को नकारती हैं. जैसे- पूजहि विप्र सकल गुण हीना. शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा। यानी ब्राह्मण भले अवगुणों से भरा है, लेकिन उसकी पूजा करनी चाहिए लेकिन शूद्र वेद का ज्ञाता है तब भी पूजा नहीं करनी चाहिए. जिस रामचरितमानस में ऐसी बातें हैं, उसे हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं।”

अखिलेश शांडिल्य कहते हैं, ”पूजहि विप्र सकल गुण हीना। शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा। इसका प्रसंग है कि राम सीता की तलाश में हैं और रावण जटायु को मार देता है। इसी बीच कबंध राक्षस आ जाता है और राम उस पर ग़ुस्से में तीर चला देते हैं। कबंध पहले गंधर्व थे और ऋषि दुर्वासा ने उन्हें छेड़खानी को लेकर राक्षस बनने का श्राप दिया था।”

”राम ने जब तीर मारा तो कबंध फिर से गंधर्व बन गए। राम का तीर तो कबंध के लिए उद्धार था। कबंध के गंधर्व बनने के बाद ही राम ने कहा था- पूजहि विप्र शील गुण हीना। शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा। मुझे ख़ुद समझ में नहीं आता है कि राम ने जिस व्यक्ति का उद्धार किया, उसके बारे में ऐसा क्यों कहेंगे? कई बार मुझे ख़ुद ही हैरानी होती है। ऐसा लगता है कि रामचरितमानस में कई चीज़ें बाद में जोड़ दी गई हैं।”

तुलसीदास के राम एक तरफ़ यहाँ वेद के ज्ञाता शूद्रों की भी पूजा नहीं करने की बात कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ़ मानस उत्तरकांड में यही राम कहते हैं-

भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।

मोहिं प्रानप्रिय अस मम बानी।।

यानी, राम कहते हैं कि भक्ति और भाव से युक्त अति नीच कहा जाने वाला प्राणी भी मुझे अपने प्राणों के समान प्रिय है। ऐसी मेरी वाणी है।

शांडिल्य कहते हैं, ”तुलसीदास भाषा, कविताई और दर्शन के लिहाज़ से जो ओहदा रखते हैं, उसमें कुछ चौपाई या दोहों का होना समझ से परे लगता है। जैसे, सूर्पनखा प्रसंग में एक चौपाई है-

भ्राता पिता पुत्र उरगारी।

पुरुष मनोहर निरखत नारी।।

होइ विकल सक मनहि न रोकी।

जिमि रबिमनि द्रव रबिहिं बिलोकी।।

इसका अर्थ है- ‘सुंदर पुरुष को देखने के बाद नारी व्याकुल हो जाती है, वो पुरुष चाहे भाई हो, पिता हो या पुत्र। स्त्री अपने मन को रोक नहीं पाती है। जैसे सूर्य के ताप से रबिमनि द्रवित हो जाता है।’

शांडिल्य कहते हैं, ”इसे पढ़कर भी ऐसा लगता है कि जो तुलसीदास भाषा, साहित्य और दर्शन के साधक हैं, वह ऐसा कैसे कह सकते हैं। मुझे ख़ुद कई दोहों और चौपाइयों को लेकर हैरानी होती है।”

जाने-माने कवि अरुण कमल कहते हैं कि उन्हें तुलसीदास की किसी चौपाई पर हैरानी नहीं होती है।

वह कहते हैं, ”साहित्य में कोई भी चरित्र आता है तो अपने परिवेश और समय की पूरी जटिलता के साथ आता है। दुनिया के सारे महान कवियों की रचना और उनके जीवन में झांकिए तो विरोधाभास मिलते हैं। अहम यह है कि साहित्य को कैसे पढ़ें? सोवियत यूनियन के महान लेखक लेव टॉलस्टॉय को लेकर भी कई तरह के सवाल उठते थे।लेनिन ने लोगों को समझाया था कि साहित्य कैसे पढ़ना चाहिए। हर कवि अपने समय का होता है और हर समय की अपनी सीमा होती है। अभी जो हमारा समय है वो 200 साल बाद पुराना पड़ जाएगा।”

अरुण कमल कहते हैं, ”तुलसीदास भारत के हृदय हैं. दुनिया के महानतम कवि हैं। उनकी कोई भी पंक्ति पर सवाल उठाने से पहले यह ध्यान रखना चाहिए कि कौन कह रहा है, कब कहा जा रहा है और कहाँ कह रहा है। जो इसका ध्यान नहीं रखते हैं, उन्हें साहित्य पढ़ने नहीं आता है। जो सवाल उठाते हैं, उन्हें तुलसी के दोहे से ही जवाब देना चाहता हूँ- जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।”

किसी रचना को बर्बाद करना है तो उसे बेकार घोषित कर दो। दूसरा तरीक़ा है कि लाल कपड़े में बांध दो, अगरबती दिखाओ और पढ़ो मत. एक तुलसी का बिना पढ़े विरोधी हैं और दूसरे तुलसी के भक्त हैं।

गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर ‘मानस का हंस’ उपन्यास लिखने वाले अमृतलाल नागर इस बात को मानते हैं कि तुलसीदास ने वर्णाश्रम व्यवस्था से समझौते किए थे, लेकिन पूरी तरह से हथियार नहीं डाल दिए थे।

नागर ने ‘मानस का हंस’ की भूमिका में लिखा है, ”समाज संगठन-कर्ता की हैसियत से सभी को कुछ न कुछ व्यावहारिक समझौते भी करने पड़ते हैं. तुलसी और हमारे समय के गांधी जी ने भी वर्णाश्रमियों से कुछ समझौते किए पर उनके बावजूद इनका जनवादी दृष्टिकोण स्पष्ट है। तुलसी ने वर्णाश्रम धर्म का पोषण भले किया हो पर संस्कारहीन कुर्कमी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि को लताड़ने में वे किसी से पीछे नहीं रहे। तुलसी की जीवन संघर्ष, विद्रोह और समर्पण से भरा है। इस दृष्टि से वह अब भी प्रेरणादायक हैं।”

रचना का काल

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”रामचरितमानस परंपरा विहीन नहीं है। यह हवा में खड़ी नहीं हुई थी। लगभग सभी भारतीय भाषाओं में प्रमुख साहित्य भक्ति काल में रचे गए हैं। भक्ति कविता और धर्मग्रंथ एक नहीं हैं। भक्त कवि धर्म गुरु नहीं हैं। भक्ति कविता से उभरने वाली चेतना सामंतवाद की सीमाओं में घिरे रहने के बावजूद सामान्यतः एक मानवीय और प्रगतिशील चेतना है।”

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”भक्ति आंदोलन ईश्वर के साथ जो संबंध स्थापित करता है, वह वैदिक साहित्य से अलग है। वैदिक साहित्य में ईश्वर और भक्त के एक बीच एक मध्यस्थ होता था। ईश्वर से संवाद एक ब्राह्मण के ज़रिए होता था। भक्ति आंदोलन ने इस चीज़ को ख़त्म कर दिया है। भक्ति आंदोलन के बाद भगवान और भक्त के बीच मध्यस्थ की भूमिका ख़त्म हो गई। इसमें जातीय बंधन से छूट मिली। कोई भी जाति का भक्त बन सकता है। उपासक ही भक्त बनने लगा। अभी तक माना जाता था कि ईश्वर केवल संस्कृत में बोलता है। भक्ति आंदोलन के बाद ईश्वर अवधी, ब्रज, तमिल तेलुगू सबमें बात करने लगा। अब भक्त की भाषा अहम हो गई. ईश्वर भी भक्त की भाषा में बात करने लगा। यह बहुत ही क्रांतिकारी बदलाव था।”

प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं, ”भक्ति आंदोलन का शुरुआती चरण सामंतवाद के विकास के क्रम में आया। शुरुआती दौर में भक्ति आंदोलन इस व्यवस्था के साथ रहा। सामंतवाद के बाद पूंजीवाद का आना प्रगतिशील सामाजिक व्यवस्था थी। सामंतवाद कोई हमेशा निगेटिव टर्म नहीं है। मनुष्य के विकास में यह एक क्रम रहा है। बाद में यह अवरोध बनता है। भक्ति आंदोलन की वजह से ही दलित शोषित सामंतवाद का विरोध करते हैं।”

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”कोई भी भक्ति आंदोलन का कवि न तो क्रांतिकारी है और न ही यथास्थितिवादी है। कबीर को लोग क्रांतिकारी मानते हैं। पर कबीर धर्म की सत्ता का विरोध करते हैं। समाज विभाजन का विरोध करते हैं. ब्राह्मण सत्ता का विरोध करते हैं। लेकिन कबीर अपने समय में राजा और सामंतों के बारे में कुछ नहीं कहते। कबीर राजसत्ता के बारे में मौन रहते हैं और पितृसत्ता का समर्थन करते हैं।”

कबीर पर सवाल क्यों नहीं?

भक्तिकाल की समझ रखने वाले विशेषज्ञ इस बात को मानते हैं कि जिस आधार पर तुलसीदास को स्त्री विरोधी बताया जा है, उस कसौटी पर कबीर भी घेरे में आ जाएँगे। कबीर के इस दोहे को देखिए-

नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग।

कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥

कबीर कह रहे हैं कि औरत नर्क के कुंड समान है और इससे शायद ही कोई बच सकता है। कोई संत ही इससे उबर सकता है। बाक़ी संबंध जोड़कर मरते हैं।

कबीर के ऐसे कई दोहे हैं, जिनमें महिलाओं को बुराई की तरह पेश किया गया है। मिसाल के तौर पर एक और दोहे को देखिए-

नारि नसावै तीनि सुख, जा नर पासैं होइ।

भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकई कोइ॥

इस दोहे में कहा गया है कि नारी के प्रति आसक्ति तीन सुखों से वंचित कर देती है। जो भी पुरुष नारी से आसक्ति रखता है, वह भक्ति, मुक्ति और ज्ञान से दूर हो जाता है।

कबीर के एक और दोहे को देखिए. इसमें भी नारी का चित्रण बुराई की तरह किया गया है।

कामणि काली नागणीं, तीन्यूँ लोक मँझारि।

राग सनेही ऊबरे, बिषई खाये झारि॥

कबीर इस दोहे में कह रहे हैं कि नारी काली नागिन के समान है जो तीनों लोकों में मौजूद है. राम से स्नेह करने वालों को तो मुक्ति मिल जाती है, लेकिन विषय विकार में लिप्त लोग नष्ट हो जाते हैं।

कबीर के ऐसे बीसियों दोहे हैं जिनमें पितृसत्ता की वकालत है और औरतों का चित्रण बुराई के रूप में किया गया है।

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”औरतों के मामले में कबीर, तुलसी और जायसी तीनों एक तरह हैं। लेकिन हम उन्हें आज के संघर्षों में नहीं देख सकते हैं। स्त्री के मामले में कबीर, जायसी और तुलसी से सूरदास आगे दिखते हैं। सूरदास के यहाँ महिलाएँ अपने-अपने पतियों को छोड़ देती हैं और स्वतंत्र होकर प्रेम करती हैं। लेकिन सूरदास ने अपने ज़माने की राज्यसत्ता और धर्मसत्ता का विरोध नहीं किया। वहीं तुलसीदास ने राज्यसत्ता और धर्म सत्ता का विरोध किया है।”

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हिन्दी साहित्य के प्रोफ़ेसर रहे और कबीर पर चर्चित किताब अकथ कहानी प्रेम की लिख चुके पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ”कबीर के यहाँ पचासों बातें स्त्री विरोधी हैं। जब आप यह भूलकर पढ़ते हैं कि वह किस समय के थे तब आप किसी को भी टारगेट कर सकते हैं। तुलसीदास इसलिए टारगेट किए जाते हैं कि रामचरितमानस को धार्मिक ग्रंथ के रूप में लिया जाता है। छात्र भी रामचरितमानस को कविता के रूप में नहीं पढ़ते नहीं हैं। रामचरितमानस बहुत ऊंचे दर्जे की साहित्यिक कृति है। हमें जो बातें आज आपत्तिजनक लगती हैं, वो हर धर्म में हैं। चाहे बाइबिल उठा लीजिए या क़ुरान सब में आज की दृष्टि से आपत्तिजनक चीज़ें हैं।”

प्रोफ़ेसर हेमलता कहती हैं, ”कबीर के दोहों में स्त्री विरोधी बातें हैं लेकिन उन्होंने दलितों नीचा नहीं दिखाया है और ब्राह्मणों के पाखंड की खुलकर पोल खोली है. कबीर ने वर्णाश्रम व्यवस्था की भी कलई खोलकर रख दी है।”
प्रोफ़ेसर अग्रवाल कहते हैं, ”जब रामचरितमानस को घेरेंगे, तो लोग पूछेंगे कि कु़रान के बारे में क्यों चुप हैं? रामचरितमानस को साहित्यिक कृति के रूप में पढ़ा जाए तब अच्छा रहेगा। साहित्य में हम कुछ को मानेंगे कुछ को नहीं मानेंगे। कबीर दास के यहाँ जाति व्यवस्था और ऊँच-नीच की आलोचना है जबकि वह नारी के नारी होने की निंदा करते हैं। मैं कबीर के इस पक्ष को नहीं मानता। तुलसीदास प्रतिक्रियावादी कवि थे, लेकिन वह बहुत बड़े कवि हैं। प्रतिक्रियावाद के साथ उनमें मानवीयता भी है। नारी की पराधीनता को लेकर भी वह संवेदनशील रहते हैं। हर धार्मिक ग्रंथ में लोकतांत्रिक मूल्यों का विरोध है। दरअसल, रामचरितमानस की ताक़त समूचे उत्तर भारत में धर्मग्रंथ के रूप में है। इसलिए समस्या होती है।”

प्रोफ़ेसर हेमलता कहती हैं, ”हम किसी भी धर्मग्रंथ से डरते नहीं हैं। हम क़ुरान से पीड़ित नहीं हैं। हम वर्णाश्रम व्यवस्था से पीड़ित हैं और रामचरितमानस इस व्यवस्था का महिमामंडन करती है।”

कबीर की रचना में औरतें

पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं अगर आप तुलसीदास को कुछ दोहों के आधार पर नारी विरोधी कहते हैं तो नारी के समर्थन वाली चौपाइयों को भी नहीं भूलना चाहिए। तुलसीदास यह भी कहते हैं-

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥

यानी तुलसीदास कह रहे हैं कि विधाता ने संसार में स्त्री को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। तुलसीदास को उनकी कुछ चौपाइयों को लेकर दलित विरोधी कह सकते हैं, लेकिन उन्होंने यह भी कहा है-

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।

काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगाड़ न सोऊ।

तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।

माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥

कवितावली की इस चौपाई में तुलसीदास कहते हैं- चाहे कोई मुझे धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो श्रीराम का ग़ुलाम है, जिसको जो लगे सो कहे. मैं तो माँग के खा लूंगा और मस्जिद (देवालय) में सो लूंगा, न किसी से एक लेना है, न दो देना है।

नामवर सिंह ने अपने एक व्याख्यान में तुलसीदास की इस चौपाई के बारे में कहा था कि इस तरह की बात कबीर दास भी नहीं कह पाए कि मस्जिद में सो लेंगे।

नामवर सिंह कहते हैं कि तुलसीदास का जीवन कबीर से ज़्यादा संघर्षपूर्ण रहा और उन्हें बनारस के पंडों ने जमकर निशाना बनाया। तुलसीदास इस दोहे में जो कुछ भी कह रहे हैं, यह उनका भोगा हुआ यथार्थ है।

नामवर सिंह ने कहा था, ”तुलसी ने जिस तरह से छंदों का इस्तेमाल किया है वह अद्भुत है। एक शेक्सपियर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में अंग्रेज़ी के अधिकतम शब्दों का इस्तमाल किया है। उसी तरह तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में अवधी, ब्रज, संस्कृति, फ़ारसी, अरबी और तुर्की के शब्दों का इस्तेमाल किया। तुलसीदास ने क़रीब 22 हज़ार शब्दों का इस्तेमाल किया है।”

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”तुलसीदास ने रामचरितमानस युवावस्था में लिखी थी। विनय पत्रिका और कवितावली में उनका फ़ोकस बिल्कुल बदल जाता है। तुलसीदास की विचारधारा बाद की रचनाओं में देखनी चाहिए। तुलसी अपने ज़माने के इकलौते लेखक हैं जो यथार्थ बताते हैं। कृषि के बारे में बताते हैं। कबीर ऐसा नहीं बताते हैं। हम मध्यकाल को 21वीं सदी या 22वीं सदी की कसौटी पर कसना चाहते हैं। हमें चीज़ों को पूर्णता में देखना चाहिए। हम 20 हज़ार पंक्तियों को छोड़ एक पंक्ति ले लेते हैं।”

प्रोफ़ेसर त्रिपाठी कहते हैं, ”साहित्यिक विवाद और राजनीतिक विवाद में एक फ़र्क़ है। साहित्य में विवाद बेहतरी के लिए होता है। आज राजनीतिक विरोध समाज को प्रगतिशील बनाने के लिए नहीं है। आज के समाज में तुलसीदास की रामचरितमानस से हज़ार गुना ज़्यादा स्त्री और दलित विरोधी सोच है। हमारे राजनेताओं को चाहिए कि वे रामचरितमानस को संपादित करने के बजाय समाज से इन बुराइयों को ख़त्म करें। क्या आप ये मानते हैं कि कोई कविता समाज बदल सकती है? वर्णव्यवस्था तुलसीदास ने नहीं बनाई थी। औरतें घर में रहेंगी ये तुलसीदास ने नहीं बनाया था। तुलसीदास ने विद्वेष फैलाया ये ग़लत बात है। हो सकता है कि उनकी कुछ पंक्तियाँ स्त्री विरोधी हों।”

भक्तिकाल में जितनी रचनाएँ हुईं, वे साहित्यिक कृति के रूप में देखी जाती हैं। अपवाद स्वरूप गुरु ग्रंथ साहिब भक्तिकाल से ही निकला और यह धर्मग्रंथ बना।

तुलसी के राम

जिस तरह से तुलसीदास को उनकी चौपाइयों को स्त्री विरोधी कहकर निशाना बनाया जाता है, उसी तरह कबीर को उनके दोहों को लेकर निशाने पर क्यों नहीं लिया जाता है?

पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं, ”रामचरितमानस की महिमा साहित्य से आगे की है। हम भले इसे साहित्य कहते रहें, लेकिन जनमानस में यह धार्मिक ग्रंथ का रूप ले चुका है। राम किसी नायक की तरह पूरे जनमानस में हैं। ऐसे में तुलसी और रामचरितमानस की चर्चा ज़्यादा लाज़िमी है।”

प्रोफ़ेसर आशीष त्रिपाठी कहते हैं, ”तुलसीदास के राम हाड़-मांस के बने हैं। वह बहुत ही सौम्य हैं। सीता की खोज में वह पशु-पक्षियों के सामने रोते हैं। सीता के बारे में पूछते हैं। लेकिन चुनावी राजनीति में राम को एक विचारधारा ने अपनी तरह से पेश किया। तुलसीदास इसलिए आसान टारगेट हैं क्योंकि उनके ईष्ट राम के नाम पर समाज को बाँटा गया है. तुलसीदास के अनुयायियों ने ही तुलसीदास को निशाने पर आने दिया। रामचरितमानस धर्म ग्रंथ नहीं है। जो ऐसा कहते हैं उन्हें भारतीय परंपरा और समाज की समझ नहीं है।”

प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं कि तुलसी के राम केवल सौम्य नहीं हैं बल्कि योद्धा भी हैं और आरएसएस वालों ने राम के योद्धा वाले स्वरूप का ही दुरुपयोग किया।

अखिलेश शांडिल्य कहते हैं, ”विमर्श संस्कृति का हिस्सा है, लेकिन ढेला (पत्थर) फेंक कर भागना विमर्श नहीं है। कोई भी रचना आलोचना से परे नहीं है। जब आप पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर कुछ करेंगे तो न्यायोचित नहीं होगा। आलोचना के औजार अच्छे होने चाहिए। इस पर निर्भर करता है कि तुलसी में से आप क्या निकालते हैं। गोमुख से गंगा निकली है। आपने बनारस में पानी निकाला और गंगा को कोसना शुरू कर दिया लेकिन गंगा को गोमुख में भी देखना चाहिए।”

तुलसीदास का राज दरबारी बनने से इनकार

अमृतलाल नागर ने ‘मानस के हंस’ में अकबर के नौरत्नों में से एक अब्दुर्रहीम ख़ानाख़ाना से तुलसीदास की मुलाक़ात के एक प्रसंग का ज़िक्र किया है

तुलसीदास जीवन के आख़िरी वक़्त में बिस्तर पर हैं।

अब्दुर्रहीम ख़ानाख़ान ने तुलसीदास का हालचाल लेने के लिए हाकिम को भेजा है।

हाकिम ने तुलसीदास को झुककर सलाम किया और कहा, ”हुजूरेआली ख़ानाख़ान साहब ने मुझे आपकी मिज़ाजपुर्सी के लिए भेजा है।”

जवाब में तुलसीदास कहते हैं- उनसे हमारा सलाम कहिएगा। उनके कुछ दोहे हमने सुने हैं। उन्हें हमारी सराहना की सूचना दीजिएगा और इस कृपा के लिए मेरा आभार भी प्रकट कीजिएगा।

दूसरे दिन ही घुड़सवारो की सेना के साथ हाथी पर सूबेदार अब्दुर्रहीम ख़ानाख़ान गोस्वामी जी के दर्शनार्थ पधारे। उनके आने की सूचना पहले ही भेज दी गई थी।

बड़ा सरकारी प्रबंध हुआ था। सूबेदार को देखने के लिए बाबा के निवास स्थान के आसपास बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी।

तुलसी और रहीम बड़े प्रेम से मिले। ख़ानाख़ान बड़े साधारण आसन पर बैठकर एक-दूसरे से बातें करने लगे। उनके बंदी बनाए जाने के कारण रहीम ने माफ़ी मांगी। उनके उपचार के लिए अपने ख़ास हकीम को भिजवाने की बात भी कही।

रहीम ने अकबर बादशाह के संबंध में कहा, ”महाबली सब प्रकार के अन्यायियों को कुचल रहे हैं। वे ऐसे धर्म का प्रतिपादन करते हैं जो मानवमात्र को एक कर सके।”

इसके जवाब में तुलसी बोले, ”इसमें कोई संदेह नहीं कि अकबर शाह के काल में बड़ी व्यवस्था आई है। फिर भी समाज और शासन को और अधिक संगठित और न्यायशील होना चाहिए।”

जवाब में अब्दुर्रहीम ख़ानाख़ान ने कहा, ”आपका कहना यथार्थ है गोस्वामी जी। अच्छा तो अब आज्ञा लूँगा। स्वस्थ हो जाएँ तो एक दिन मुझे दर्शन देने की कृपा ज़रूर करें। एक और निवेदन करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि आप ऐसे महात्मा महाकवि को राज्य संरक्षण मिलना चाहिए। मैं यदि शहंशाह को आपको कोई जागीर प्रदान करने के लिए लिखूँ तो क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?”

तुलसी हँसे और बोले- ”आपकी बड़ी कृपा है ख़ानाख़ान साहब, परन्तु..

हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखो दरबार।

तुलसी अब का होहिंगे, नर के मनसबदार।।

यानी तुलसीदास कहते हैं- राम के दरबार में मेरी चाकरी का पट्टा लिखा चुका है। तो अब भला किसी मनुष्य की मनसबदारी क्या करूँगा।

सोर्स-BBC Hindi

Bol Chhattisgarh Desk

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